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जीवनी/आत्मकथा >> जो रहते हैं हर पल साँसों में जो रहते हैं हर पल साँसों मेंप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी की आत्म-जीवनी
कुछ दिन पहले मेरे प्रिय कहानीकार श्री प्रदीप श्रीवास्तव की अद्यतन पुस्तक 'जो रहते हैं हर पल साँसों में' की पांडुलिपि पढ़ने का सौभाग्य मिला, यद्यपि इसे उन्होंने संस्मरण कहा है। मगर स्थान-काल-पात्र और लेखन-शैली को देखते हुए मुझे लगता है कि कृति को 'आत्मकथा' या 'आत्म जीवनी' की श्रेणी में लेना ज्यादा उचित होगा; इसलिए मैं इस पुस्तक की भूमिका उनकी 'आत्मकथा' मानते हुए लिख रहा हूं, क्योंकि अधिकांश संस्मरण किसी विशेष घटना-प्रसंगों तक सीमित रहते हैं, जबकि आत्म-जीवनी का कैनवास बहुत बड़ा होता है और जो स्वयं लेखक द्वारा भुगता हुआ होता है। संतोषप्रद यह रहा कि प्रदीप मेरे विचारों से सहमत हो गए। पुस्तक को आत्म-जीवनी मान लिया।
नि:संकोच यह कह सकता हूं कि इस कृति की पृष्ठभूमि अत्यंत ही मार्मिक है और यह सोचने पर मजबूर करती है, कि क्या भगवान इतने ज्यादा कष्ट किसी परिवार को दे सकता है, जिससे एक हँसता-मुस्कुराता परिवार अचानक से अनेक आकिस्मकताओं का इस कदर शिकार हो जाता है कि लेखक का भगवान पर से विश्वास ही उठ जाता है? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि जब लेखक ने इस पुस्तक को लिखते समय अपने अतीत की स्मृतियों को कुरेदा होगा तो उसकी आंखें आंसुओं से पूरी तरह भीग गई होंगी।
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